Wednesday, September 27, 2017

ढोंग

काही दिवसांपूर्वी एका ठिकाणी झालेली जंगलतोड़ बघून अस्वस्थ अवस्थेत काही ओळी खरडल्या होत्या.

रात के वक्त जब सारी दुनियाँ,
खर्राटों के आलम में डूब जाती है !
मैं अक्सर जागता रहता हूँ,
सोने नही देती भुलेसे भी...
कराहते दरख्तोंकी खामोश सिसकियाँ..
मैं खिडकी से बाहर झाँकता हूँ ...
महसूस करनेकी कोशिश करता हूँ,
अधकटे पीपल के तनेसे रिसती,
हजारो अनकही दास्ताएँ !
पुकार-पुकारके दुहाइयाँ देती,
उससे लिपटी मजबूर बेले ...
मुझसे पूँछती है ,
क्यां सचमुच...,
हमारी कोई जरूरत नही है तुम्हें?
मैं कसमसा जाता हूँ...
चादर ओढ के फिरसे नींद का ढोंग रचाता हूँ !

© विशाल कुलकर्णी

No comments:

Post a Comment